Sanskrit Slokas (संस्कृत श्लोक) With Meaning In Hindi (प्रेरणास्पद संस्कृत श्लोक हिंदी अर्थ सहित)
संस्कृत भाषा, जिसमें सबसे बड़े संस्कृत श्लोक का बहुत महत्व हैं, दुनिया की सबसे पुरानी भाषा है और भारतीय संस्कृति के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। संस्कृत का दूसरा नाम देवभाषा है। दोस्तों हमने इस लेख में सबसे सार्थक संस्कृत श्लोकों का संग्रह किया है। संस्कृत भाषा, जो प्राचीन भारतीय ऋषियों द्वारा प्रयोग की जाती थी और आज भी प्रयोग की जाती है, इतनी प्रभावी है कि यह कम शब्दों में अधिक जानकारी दे सकती है।
संस्कृत श्लोकों (Shlokas in Sanskrit) की नींव हमेशा मानव जीवन रही है; यह प्राचीन काल से अस्तित्व में है और आज भी प्रासंगिक है। मानव जीवन का महत्व, इसके लाभ और जीवन के नियमों की चर्चा संस्कृत के पांच श्लोकों में से प्रत्येक में की गई है।
ये श्लोक (Shlokas) सिर्फ विद्यार्थियों के लिए नहीं हैं; वे सभी जीवित चीजों के लिए हैं और उन्हें उनके आध्यात्मिक विकास की आधारशिला माना जाता है। मानव जीवन सूचना और सीखने के अधिग्रहण के बिना लक्ष्यहीन और भ्रमित करने वाला प्रतीत होता है।
संस्कृत कई अन्य भाषाओं की मातृभाषा है। यह सिर्फ एक भाषा से ज्यादा है; इसमें सभी वेद, शास्त्र और सार्वभौमिक ज्ञान भी शामिल हैं।
चूंकि संस्कृत भारतीय संस्कृति की नींव है और वर्तमान में विलुप्त होने के कगार पर है, इसलिए यह महत्वपूर्ण है कि हम इसे संरक्षित करें।
हमने छात्रों और बड़ों के लिए हिंदी अर्थ के साथ शैक्षिक छंद बनाए हैं क्योंकि हम जानते हैं कि आप उनका आनंद लेंगे। इस भाषा को बोलने से हमारे मानसिक स्वास्थ्य और उच्चारण में सुधार होता है।
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् । धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे ॥
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श्लोक भावार्थ – मैं अवतार लेता हूं. मैं प्रकट होता हूं. जब जब धर्म की हानि होती है, तब तब मैं आता हूं. जब जब अधर्म बढ़ता है तब तब मैं साकार रूप से लोगों के सम्मुख प्रकट होता हूं, सज्जन लोगों की रक्षा के लिए मै आता हूं, दुष्टों के विनाश करने के लिए मैं आता हूं, धर्म की स्थापना के लिए में आता हूं और युग युग में जन्म लेता हूं.
Note – इस श्लोक को भगवान श्री कृष्ण ने भगवद गीता (Bhagavad Gita) में अर्जुन को उपदेश देते हुए कहा था
ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यम्,
भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्!
श्लोक भावार्थ – हम सृष्टिकर्ता प्रकाशमान परमात्मा का ध्यान करते हैं, परमात्मा का तेज हमारी बुद्धि को सन्मार्ग की ओर चलने के लिए प्रेरित करें।
प्रभु आप ही इस सृष्टि के निर्माता हो, आप ही हम सब के दुःख हरने वाले हो, हमारे प्राणों के आधार हे परम पिता परमेश्वर, सृष्टि निर्माता मैंने आपका वर्ण कर रहा हूं।
यानि उस प्राण स्वरूप, दुःख नाशक, सुख स्वरुप श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देव स्वरुप परमात्मा को हम अन्तरात्मा में धारण करें। परमात्मा हमारी बुद्धि को सत्मार्ग पर प्रेरित करें।
हे परम पिता परमेश्वर मैं आपसे यही प्रार्थना करता हूं कि मुझे सदबुद्धि देना और हमेशा सही मार्ग पर चलता रहूं।
Note – यह मंत्र हमारे संस्कृति में गायत्री मंत्र (Gayatri Mantra) के नाम से वर्णित है|
सुखार्थिनः कुतोविद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम् ।
सुखार्थी वा त्यजेद् विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत् सुखम् ॥
श्लोक भावार्थ – जिसे सुख की अभिलाषा हो (कष्ट उठाना न हो) उसे विद्या कहाँ से ? और विद्यार्थी को सुख कहाँ से ? सुख की ईच्छा रखनेवाले को विद्या की आशा छोडनी चाहिए, और विद्यार्थी को सुख की ।
ॐ गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुर्साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः।।
श्लोक भावार्थ – गुरु ही ब्रह्मा है, गुरु ही विष्णु है और गुरु ही भगवान शंकर है। गुरु ही साक्षात परब्रह्म है। ऐसे गुरु को मैं प्रणाम करता हूँ।
ज्ञातिभि र्वण्टयते नैव चोरेणापि न नीयते ।
दाने नैव क्षयं याति विद्यारत्नं महाधनम् ॥
श्लोक भावार्थ – यह विद्यारुपी रत्न महान धन है, जिसका वितरण ज्ञातिजनों द्वारा हो नहीं सकता, जिसे चोर ले जा नहीं सकते, और जिसका दान करने से क्षय नहीं होता ।
न चोरहार्यं न च राजहार्यंन भ्रातृभाज्यं न च भारकारी ।
व्यये कृते वर्धते एव नित्यं विद्याधनं सर्वधन प्रधानम् ॥
श्लोक भावार्थ – विद्यारुपी धन को कोई चुरा नहीं सकता, राजा ले नहीं सकता, भाईयों में उसका भाग नहीं होता, उसका भार नहीं लगता, (और) खर्च करने से बढता है । सचमुच, विद्यारुप धन सर्वश्रेष्ठ है ।
सर्वद्रव्येषु विद्यैव द्रव्यमाहुरनुत्तमम् ।
अहार्यत्वादनर्ध्यत्वादक्षयत्वाच्च सर्वदा ॥
श्लोक भावार्थ – सब द्रव्यों में विद्यारुपी द्रव्य सर्वोत्तम है, क्यों कि वह किसी से हरा नहीं जा सकता; उसका मूल्य नहीं हो सकता, और उसका कभी नाश नहीं होता ।
नास्ति विद्यासमो बन्धुर्नास्ति विद्यासमः सुहृत् ।
नास्ति विद्यासमं वित्तं नास्ति विद्यासमं सुखम् ॥
श्लोक भावार्थ – विद्या जैसा बंधु नहीं, विद्या जैसा मित्र नहीं, (और) विद्या जैसा अन्य कोई धन या सुख नहीं ।
विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनम् विद्या भोगकरी यशः सुखकरी विद्या गुरूणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परं दैवतम् विद्या राजसु पूज्यते न हि धनं विद्याविहीनः पशुः ॥
श्लोक भावार्थ – विद्या इन्सान का विशिष्ट रुप है, गुप्त धन है । वह भोग देनेवाली, यशदात्री, और सुखकारक है । विद्या गुरुओं का गुरु है, विदेश में वह इन्सान की बंधु है । विद्या बडी देवता है; राजाओं में विद्या की पूजा होती है, धन की नहीं । इसलिए विद्याविहीन पशु हि है ।
पृथिवीं चान्तरिक्षं च दिवं च पुरुषोत्तमः।
विचेष्टयति भूतात्मा क्रीडन्निव जनार्दनः॥
श्लोक भावार्थ – वे सर्वंतरीमी पुरुषोत्तम जनार्दन हैं, मानो वे खेल के माध्यम से पृथ्वी, आकाश और स्वर्गीय दुनिया को प्रेरित कर रहे हैं।
नमन्ति फलिनो वृक्षा:,नमन्ति गुणिनो जनाः।
शुष्कवृक्षाश्च मूर्खाश्च न नमन्ति कदाचन।।
श्लोक भावार्थ – फल से भरा हुआ वृक्ष हमेशा धरती को नमन करता है अर्थात वह फल लगने के बाद भी पकड़ता नहीं सदैव झुका रहता है, ठीक उसी तरह गुणी मनुष्य भी सभी के साथ नम्रता से व्यवहार करता है। किन्तु मुर्ख मनुष्य सुखी लकड़ी की तरह होता है ( जैसे सुखी लकड़ी झुक नहीं सकती वह अक्कड़ी रहती है ) जो किसी के आगे नहीं झुकती मुर्ख मनुष्य भी वैसे होते है, ऐसे मुर्ख मनुष्यो से हमेशा दूर रहना चाहिये।
स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान्सर्वत्र पूज्यते।।
श्लोक भावार्थ – एक मुर्ख की पूजा उसके घर में होती है, एक मुखिया की पूजा उसके गाँव में होती है, राजा की पूजा उसके राज्य में होती है और एक विद्वान की पूजा सभी जगह पर होती है।
शरीरं चैव वाचं च बुद्धिन्द्रिय मनांसि च ।
नियम्य प्राञ्जलिः तिष्ठेत् वीक्षमाणो गुरोर्मुखम् ॥
श्लोक भावार्थ – शरीर, वाणी, बुद्धि, इंद्रिय और मन को संयम में रखकर, हाथ जोडकर गुरु के सन्मुख देखना चाहिए ।
नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ ।
गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत् ॥
श्लोक भावार्थ – गुरु के पास हमेशा उनसे छोटे आसन पे बैठना चाहिए । गुरु आते हुए दिखे, तब अपनी मनमानी से नहीं बैठना चाहिए ।
गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते ।
अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते ॥
श्लोक भावार्थ – ‘गु’कार याने अंधकार, और ‘रु’कार याने तेज; जो अंधकार का (ज्ञान का प्रकाश देकर) निरोध करता है, वही गुरु कहा जाता है ।
निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते ।
गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते ॥
श्लोक भावार्थ – जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप रास्ते से चलते हैं, हित और कल्याण की कामना रखनेवाले को तत्त्वबोध करते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं ।
प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा ।
शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः ॥
श्लोक भावार्थ – प्रेरणा देनेवाले, सूचन देनेवाले, (सच) बतानेवाले, (रास्ता) दिखानेवाले, शिक्षा देनेवाले, और बोध करानेवाले – ये सब गुरु समान है ।
धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः ।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते ॥
श्लोक भावार्थ – धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं ।
किमत्र बहुनोक्तेन शास्त्रकोटि शतेन च ।
दुर्लभा चित्त विश्रान्तिः विना गुरुकृपां परम् ॥
श्लोक भावार्थ – बहुत कहने से क्या ? करोडों शास्त्रों से भी क्या ? चित्त की परम् शांति, गुरु के बिना मिलना दुर्लभ है ।
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
श्लोक भावार्थ – इस श्लोक में श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है कि कर्म पर ही तुम्हारा अधिकार है, कर्म के फल पर तुम्हारा अधिकार नहीं है। इसलिए कर्म के फल की चिंता नहीं करनी चाहिए। इस श्लोक में कर्म का महत्व समझाया गया है। हमें केवल कर्म पर ध्यान देना चाहिए। यानी अपना काम पूरी ईमानदारी से करें और गलत कामों से बचें।
माता च कमला देवी पिता देवो जनार्दनः।
बान्धवा विष्णुभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम्॥
श्लोक भावार्थ – जिस मनुष्य की माँ लक्ष्मी के समान है, पिता विष्णु के समान है और भाइ – बन्धु विष्णु के भक्त है, उसके लिए अपना घर ही तीनों लोकों के समान है ।
इन्द्रियैरिन्द्रियार्थेषु वर्तमानैरनिग्रहैः।
तैरयं ताप्यते लोको नक्षत्राणि ग्रहैरिव॥
श्लोक भावार्थ – यह मानव -शरीर रथ है ,आत्मा (बुद्धि ) इसका सारथी है ,इंद्रियाँ इसके घोड़े हैं। जो व्यक्ति सावधानी ,चतुराई और बुद्धिमानी से इनको वश में रखता है वह श्रेष्ठ रथवान की भांति संसार में सुखपूर्वक यात्रा करता है।
करिष्यामि करिष्यामि करिष्यामीति चिन्तया।
मरिष्यामि मरिष्यामि मरिष्यामीति विस्मृतम्॥
श्लोक भावार्थ – मैं यह कार्य करूंगा ,वह कार्य करूंगा या मुझे वह कार्य करना है , इस प्रकार की चिन्तायें करते करते मनुष्य यह भी भूल जाता है कि उसकी मृत्यु किसी भी क्षण हो सकती है ।
सुवर्णरौप्य माणिक्यवसनैरपि पुरिता ।
तथापि प्रार्थयन्त्येव कृषकान् भक्त तृष्ण या ॥
श्लोक भावार्थ – सोना,चांदी,माणिक्य एवं वस्त्रों से पूर्ण होने पर भी मनुष्यों को भोजन के आवश्यकतावश किसान पर निर्भर रहना पड़ता हैं ।
महो अर्णः सरस्वती प्र चेतयति केतुना।
धियो विश्वा वि राजति।।
श्लोक भावार्थ – हे मां सरस्वती देवी, अपने इस विशाल सागर से आप हम सभी को ज्ञान प्रदान कर रही है। कृपा करके इस पूरे संसार को अपार बुद्धि से सुशोभित करें।
स्वगृहे पूज्यते मूर्खः स्वग्रामे पूज्यते प्रभुः ।
स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते ॥
श्लोक भावार्थ – एक मूर्ख व्यक्ति अपने ही घर में प्रसिद्ध होता है, अपने ही नगर में प्रभु का पूजा होती है, राजा की अपने ही देश में आदर होता है। लेकिन विद्वान व्यक्ति का सर्वत्र सम्मान होता है।
न माता शपते पुत्रं न दोषं लभते मही ।
न हिंसां कुरुते साधुः न देवः सृष्टिनाशकः ॥
श्लोक भावार्थ – एक माँ अपने बच्चे को कभी शाप नहीं देगी, कोई दोष पृथ्वी को कलंकित नहीं करेगा, कुलीन दूसरों को नुकसान नहीं पहुंचाएगा, भगवान अपनी रचना को नष्ट नहीं करेगा।
अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्।
उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।।
श्लोक भावार्थ – जिनका हृदय बड़ा होता है, उनके लिए पूरी धरती ही परिवार होती है और जिनका हृदय छोटा है, उनकी सोच वह यह अपना है, वह पराया है की होती है।
अलसस्य कुतः विद्या अविद्यस्य कुतः धनम्।
अधनस्य कुतः मित्रम् अमित्रस्य कुतः सुखम्।।
श्लोक भावार्थ – आलसी व्यक्ति को विद्या कहां, मुर्ख और अनपढ़ और निर्धन व्यक्ति को मित्र कहां, अमित्र को सुख कहां।
या देवी सर्वभूतेशु, शक्तिरूपेण संस्थिता ।
नमस्तसयै, नमस्तसयै, नमस्तसयै नमो नम: ॥
श्लोक भावार्थ – देवी सभी जगह व्याप्त है जिसमे सम्पूर्ण जगत की शक्ति निहित है ऐसी माँ भगवती को मेरा प्रणाम, मेरा प्रणाम, मेरा प्रणाम ।
वृन्दावनेश्वरी राधा कृष्णो वृन्दावनेश्वरः।
जीवनेन धने नित्यं राधाकृष्णगतिर्मम॥
श्लोक भावार्थ – श्रीराधारानी वृन्दावन की स्वामिनी हैं और भगवान श्रीकृष्ण वृन्दावन के स्वामी हैं, इसलिये मेरे जीवन का प्रत्येक-क्षण श्रीराधा-कृष्ण के आश्रय में व्यतीत हो।
कालचक्रं जगच्चक्रं युगचक्रं च केशवः।
आत्मयोगेन भगवान् परिवर्तयतेऽनिशम्॥
श्लोक भावार्थ – यह श्रीकेशव ही है जो अपनी चिचचक्ति से हरणिश कालचक्र, जगचक्र और युग-चक्र को घुमाता रहता है।
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वसुदेवसुतं देवं कंसचाणूरमर्दनम् ।
देवकी परमानन्दं कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्॥
श्लोक भावार्थ – कंस और चाणूर का वध करनेवाले, देवकी के आनन्दवर्द्धन, वसुदेवनन्दन जगद्गुरु श्रीक़ृष्ण चन्द्र की मैं वन्दना करता हूँ ।
मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठं।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये॥
श्लोक भावार्थ – हे मनोहर, वायुवेग से चलने वाले, इन्द्रियों को वश में करने वाले, बुद्धिमानो में सर्वश्रेष्ठ। हे वायु पुत्र, हे वानर सेनापति, श्री रामदूत हम सभी आपके शरणागत है।
प्रेरकः सूचकश्वैव वाचको दर्शकस्तथा।
शिक्षको बोधकश्चैव षडेते गुरवः स्मृताः॥
श्लोक भावार्थ – प्रेरणा देनेवाले, सूचन देनेवाले, (सच) बतानेवाले, (रास्ता) दिखानेवाले, शिक्षा देनेवाले, और बोध करानेवाले – ये सब गुरु समान है।
एकमप्यक्षरं यस्तु गुरुः शिष्ये निवेदयेत्।
पृथिव्यां नास्ति तद् द्रव्यं यद्दत्वा ह्यनृणी भवेत्॥
श्लोक भावार्थ – गुरु शिष्य को जो एखाद अक्षर भी कहे, तो उसके बदले में पृथ्वी का ऐसा कोई धन नहि, जो देकर गुरु के ऋण में से मुक्त हो सकें ।
निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते।
गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम् शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते॥
श्लोक भावार्थ – जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप रास्ते से चलते हैं, हित और कल्याण की कामना रखनेवाले को तत्त्वबोध करते हैं, उन्हें गुरु कहते हैं।
गुरौ न प्राप्यते यत्तन्नान्यत्रापि हि लभ्यते।
गुरुप्रसादात सर्वं तु प्राप्नोत्येव न संशयः॥
श्लोक भावार्थ – गुरु के द्वारा जो प्राप्त नहीं होता, वह अन्यत्र भी नहीं मिलता। गुरु कृपा से निस्संदेह (मनुष्य) सभी कुछ प्राप्त कर ही लेता है।
वेषं न विश्वसेत् प्राज्ञः वेषो दोषाय जायते।
रावणो भिक्षुरुपेण जहार जनकात्मजाम्॥
श्लोक भावार्थ – (केवल बाह्य) वेष पर विश्वास नहि करना चाहिए; वेष दोषयुक्त (झूठा) हो सकता है । रावण ने भिक्षु का रुप लेकर हि सीता का हरण किया था ।
नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसंनिधौ।
गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत्।।
श्लोक भावार्थ – गुरु के पास हमेशा उनसे छोटे आसन पर ही बैठना चाहिए। गुरु के आते हुए दिखाई देने पर भी अपनी मनमानी से नहीं बैठे रहना चाहिए। अर्थात गुरू का आदर करना चाहिए।
धर्मज्ञो धर्मकर्ता च सदा धर्मपरायणः।
तत्त्वेभ्यः सर्वशास्त्रार्थादेशको गुरुरुच्यते॥
श्लोक भावार्थ – धर्म को जाननेवाले, धर्म मुताबिक आचरण करनेवाले, धर्मपरायण, और सब शास्त्रों में से तत्त्वों का आदेश करनेवाले गुरु कहे जाते हैं।
पूर्णे तटाके तृषितः सदैव।
भूतेऽपि गेहे क्षुधितः स मूढः॥
कल्पद्रुमे सत्यपि वै दरिद्रः।
गुर्वादियोगेऽपि हि यः प्रमादी॥
श्लोक भावार्थ – जो इन्सान गुरु मिलने के बावजुद प्रमादी रहे, वह मूर्ख पानी से भरे हुए सरोवर के पास होते हुए भी प्यासा, घर में अनाज होते हुए भी भूखा, और कल्पवृक्ष के पास रहते हुए भी दरिद्र है ।
विनयफलं शुश्रूषा गुरुशुश्रूषाफलं श्रुतं ज्ञानम्।
ज्ञानस्य फलं विरतिः विरतिफलं चाश्रवनिरोधः॥
श्लोक भावार्थ – विनय का फल सेवा है, गुरुसेवा का फल ज्ञान है, ज्ञान का फल विरक्ति (स्थायित्व) है, और विरक्ति का फल आश्रवनिरोध (बंधनमुक्ति तथा मोक्ष) है।
परिश्रमो मिताहारः भेषजे सुलभे मम।
नित्यं ते सेवमानस्य व्याधिर्भ्यो नास्ति ते भयम्॥
श्लोक भावार्थ – मेहनत और हल्का खाना। यह किसी भी बीमारी के लिए आसानी से उपलब्ध होने वाली दवा है। अगर आप इन्हें रोजाना करते हैं तो आपको किसी भी बीमारी का डर नहीं रहेगा।
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।
चत्वारि तस्य वर्धन्ते आयुर्धर्मो यशो बलम्॥
श्लोक भावार्थ – जो सदा नम्र, सुशील, विद्वान् और वृद्धों की सेवा करता है उसकी आयु, विद्या, कृति और बल इन चारों में वृद्धि होती है।
दूरादतिथयो यस्य गृहमायान्ति निर्वृताः।
गृहस्थः स तु विज्ञेयः शेषास्तु गृहरक्षिणाः॥
श्लोक भावार्थ – जिसके घर पर दूर-दूर से और आनन्द से अतिथि आते हैं, वे ही सही मायने में गृहस्थ माने जाते हैं,बाकी सब तो केवल उनके घर के पहरेदार मात्र होते हैं ।
प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः।
तस्मात् तदेव वक्तव्यं वचने का दरिद्रता॥
श्लोक भावार्थ – इस श्लोक में आचार्य चाणक्य प्रिय वचन बोलने की शिक्षा दे रहे है, हमें हमेशा मीठे और प्रिय वाक्यों को ही बोलना चाहिए क्योंकि इसे सुनकर सभी प्राणी खुश होते हैं इसलिए मीठे वाक्यों को बोलने में कंजूसी नहीं करनी चाहिए।
नमन्ति फलिनो वृक्षाः नमन्ति गुणिनो जनाः।
शुष्क काष्ठस्य मूर्खश्च न नमन्ति कदाचन् ॥
श्लोक भावार्थ – फलों से लदे हुए वृक्ष भूमि की ओर झुक जाते हैं । गुणी लोग भी सदैव झुक जाते हैं । किन्तु सूखी लकड़ी और मूर्ख लोग कभी झुकते नहीं हैं ।
दाने तपसि शौर्ये च विज्ञाने विनये नये।
विस्मयो न हि कर्त्तव्यो बहुरत्ना वसुन्धरा॥
श्लोक भावार्थ – दान में, तपस्या में, बल में, विशेष ज्ञान में, विनम्रता में और नीति में निश्चय ही आश्चर्य नहीं करना चाहिए। पृथ्वी बहुत रत्नों वाली है। अर्थात् पृथ्वी में बहुत से ऐसे रत्न भरे हुए हैं।
नवनीतं घृतं दुग्धं दधि तक्रं च पञ्चमम् ।
सर्वमेककुलाज्जाता मूल्यं सर्वस्य वै पृथक् ॥
श्लोक भावार्थ – दूध,दही,मखन,घी और पांचवीं छाछ, ये सब एक ही कुल मे जन्मे है फिर भी सबकी कीमत अलग अलग है (श्रेष्ठता कुल से नहीं कर्म से प्राप्त होती है)
ज्ञानं यस्य समीपे स्यात् मदस्तस्मिन्न विद्यते।
यस्य पार्श्वे भवेत् गर्व:ज्ञानं तस्य कुतो भवेत्।।
श्लोक भावार्थ – जिसके पास ज्ञान है। वह अहंकार नहीं रख सकता। उसके पास अहंकार है। उसे कहां से ज्ञान है?
कस्यापि नास्ति सम्बन्धी समयो धरणीतले।
समयमवलोक्यैव सम्बधिनो भवन्ति च ।।
श्लोक भावार्थ – जगत मे समय किसी का सम्बन्धी नहि होता, सब समय देख कर हि सम्बन्धी बनाते है ।
क्षत्रियो हि प्रजारक्षन शस्त्रपाणिः प्रदण्डयन ।
निर्जित्य परसैन्यादि क्षितिं धर्मण पालयेत ॥
श्लोक भावार्थ – क्षत्रिय का धर्म है कि वह सभी क्लेशों से नागरिकों की रक्षा करे इसीलिए उसे शान्ति तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए हिंसा करनी पड़ती है । अतः उसे शत्रु राजाओं के सैनिकों को जीत कर धर्मपूर्वक संसार पर राज्य करना चाहिए ।
यः पठति लिखति पश्यति, परिपृच्छति पंडितान् उपाश्रयति।
तस्य दिवाकरकिरणैः नलिनी, दलं इव विस्तारिता बुद्धिः॥
श्लोक भावार्थ – जो मनुष्य पढ़ता है, लिखता है, देखता है, प्रश्न पूछता है और बुद्धिमानों का आश्रय लेता है, उसकी बुद्धि उसी प्रकार बढ़ती है जैसे कि सूर्य किरणों से कमल की पंखुड़ियाँ बढ़ती है।
विद्या मित्रं प्रवासेषु भार्या मित्रं गॄहेषु च।
व्याधितस्यौषधं मित्रं धर्मो मित्रं मॄतस्य च॥
श्लोक भावार्थ – घर से दूर होने पर विद्या मित्र होती है, घर में पत्नी मित्र होती है, रोग में औषधि मित्र होती है और मृत्यु होने पर धर्म मित्र होता है।
प्रदोषे दीपक : चन्द्र:,प्रभाते दीपक:रवि:।
त्रैलोक्ये दीपक:धर्म:,सुपुत्र: कुलदीपक:।।
श्लोक भावार्थ – संध्या काल में चन्द्रमा दीपक है, प्रभात काल में सूर्य दीपक है, तीनों लोकों में धर्म दीपक है और सुपुत्र कूल का दीपक है।
दयाहीनं निष्फलं स्यान्नास्ति धर्मस्तु तत्र हि।
एते वेदा अवेदाः स्यु र्दया यत्र न विद्यते।।
श्लोक भावार्थ – बिना दया के किये गये काम में कोई फल नहीं मिलता, ऐसे काम में धर्म नहीं होता जहां दया नहीं होती। वहां वेद भी अवेद बन जाते है।
जीवेषु करुणा चापि मैत्री तेषु विधीयताम् ।
श्लोक भावार्थ – जीवो पर हमेशा करुणा और दया की भावना रखनी चाहिए और उनसे मित्रता पूर्वक व्यवहार कीजिए
विवादो धनसम्बन्धो याचनं चातिभाषणम् ।
आदानमग्रतः स्थानं मैत्रीभङ्गस्य हेतवः॥
श्लोक भावार्थ – वाद-विवाद, धन के लिये सम्बन्ध बनाना, माँगना, अधिक बोलना, ऋण लेना, आगे निकलने की चाह रखना – यह सब मित्रता टूटने का कारण बनते हैं इसलिए हमेशा उनसे दूरी बना कर रखनी चाहिए।
आढ् यतो वापि दरिद्रो वा दुःखित सुखितोऽपिवा ।
निर्दोषश्च सदोषश्च व्यस्यः परमा गतिः ॥
श्लोक भावार्थ – चाहे धनी हो या निर्धन, दुःखी हो या सुखी, निर्दोष हो या सदोष – मित्र ही किसी भी व्यक्ति का सबसे बड़ा सहारा होता है।
विद्यां ददाति विनयं विनयाद् याति पात्रताम्।
पात्रत्वात् धनमाप्नोति धनात् धर्मं ततः सुखम्।।
श्लोक भावार्थ – मनुष्य को ज्ञान से ही विनम्रता प्रदान होती है, विनम्रता से ही योग्यता आती है और योग्यता से ही धन की प्राप्ति होती है, जिससे व्यक्ति धर्म के कार्य करता है और सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करता है
न विना परवादेन रमते दुर्जनोजन:।
काक:सर्वरसान भुक्ते विनामध्यम न तृप्यति।।
श्लोक भावार्थ – दुष्ट प्रवृत्ति वाले व्यक्तियों को दूसरों की निंदा किए बिना आनंद नहीं आता है जैसे कौवा सब रसों का भोग करता है परंतु गंदगी भी जाए बिना उससे रहा नहीं जाता है।
स्तस्य भूषणम दानम, सत्यं कंठस्य भूषणं।
श्रोतस्य भूषणं शास्त्रम,भूषनै:किं प्रयोजनम।।
श्लोक भावार्थ – हाथ का आभूषण दान है, गले का आभूषण सत्य है और कान की शोभा शास्त्र सुनने में हैं तो अन्य आभूषणों की क्या आवश्यकता है।
यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः।
यत्र तास्तु न पूज्यंते तत्र सर्वाफलक्रियाः।।
श्लोक भावार्थ – जहाँ पर हर नारी की पूजा होती है वहां पर देवता भी निवास करते हैं और जहाँ पर नारी की पूजा नहीं होती, वहां पर सभी काम करना व्यर्थ है।
किन्नु हित्वा प्रियो भवति। किन्नु हित्वा न सोचति।।
किन्नु हित्वा अर्थवान् भवति। किन्नु हित्वा सुखी भवेत्।।
श्लोक भावार्थ – किस चीज को छोड़कर मनुष्य प्रिय होता है? कोई भी चीज किसी का हित नहीं सोचती? किस चीज का त्याग करके व्यक्ति धनवान होता है? और किस चीज का त्याग कर सुखी होता है?
मा भ्राता भ्रातरं द्विक्षन्, मा स्वसारमुत स्वसा।
सम्यञ्च: सव्रता भूत्वा वाचं वदत भद्रया।।
श्लोक भावार्थ – भाई अपने भाई से कभी द्वेष नहीं करें, बहन अपनी बहन से द्वेष नहीं करें, समान गति से एक दूसरे का आदर-सम्मान करते हुए परस्पर मिल-जुलकर कर्मों को करने वाले होकर अथवा एकमत से प्रत्येक कार्य करने वाले होकर भद्रभाव से परिपूर्ण होकर संभाषण करें।
सत्य -सत्यमेवेश्वरो लोके सत्ये धर्मः सदाश्रितः।
सत्यमूलनि सर्वाणि सत्यान्नास्ति परं पदम्।।
श्लोक भावार्थ – उस संसार में सत्य ही ईश्वर है धर्म भी सत्य के ही आश्रित है, सत्य ही सभी भाव-विभव का मूल है, सत्य से बढ़कर और कुछ भी नहीं है।
उद्यमः साहसं धैर्यं बुद्धिः शक्तिः पराक्रमः।
षडेते यत्र वर्तन्ते तत्र दैवं सहायकृत्।।
श्लोक भावार्थ – जो जोखिम लेता हो (उधम), साहस, धैर्य, बुद्धि, शक्ति और पराक्रम जैसे ये 6 गुण जिस व्यक्ति के पास होते हैं, उसकी मदद भगवान भी करता है।
ॐ असतो मा सद्गमय।
तमसो मा ज्योतिर्गमय।
मृत्योर्मामृतं गमय।।
श्लोक भावार्थ – हे प्रभु, हम सभी को असत्य से दूर सत्य की ओर ले चलो घोर अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो, मृत्यु से अमरता की ओर ले चलो।
न विश्वसेदविश्वस्ते विश्वस्ते नातिविश्वसेत्।
विश्वासाद् भयमभ्येति नापरीक्ष्य च विश्वसेत्।।
श्लोक भावार्थ – जो विश्वसनीय नहीं है, उस पर कभी भी विश्वास न करें। परन्तु जो विश्वासपात्र है, उस पर भी आंख मूंदकर भरोसा न करें। क्योंकि अधिक विश्वास से भय उत्पन्न होता है। इसलिए बिना उचित परीक्षा लिए किसी पर भी विश्वास न करें।
सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भवेत् ।।
श्लोक भावार्थ – संसार में सभी सुखी हो, निरोगी हो, शुभ दर्शन हो और कोई भी ग्रसित ना हो।
यथा चतुर्भिः कनकं परीक्ष्यते निर्घषणच्छेदन तापताडनैः।
तथा चतुर्भिः पुरुषः परीक्ष्यते त्यागेन शीलेन गुणेन कर्मणा।।
श्लोक भावार्थ – जिस प्रकार सोने का परिक्षण घिसने, काटने, तापने और पीटने जैसे चार प्रकारों से होता है। ठीक उसी प्रकार पुरूष की परीक्षा त्याग, शील, गुण और कर्मों से होती है।
पृथ्वियां त्रीणि रत्नानि जलमन्नम सुभाषितं।
मूढ़े: पाधानखंडेषु रत्नसंज्ञा विधीयते।।
श्लोक भावार्थ – पृथ्वी पर तीन रत्न हैं- जल,अन्न और शुभ वाणी। पर मूर्ख लोग पत्थर के टुकड़ों को रत्न की संज्ञा देते हैं।
सत्यं ब्रूयात प्रियं ब्रूयात न ब्रूयात सत्यं प्रियम।
प्रियं च नानृतं ब्रूयात एष धर्म: सनातन:।।
श्लोक भावार्थ – सत्य बोलो, प्रिय बोलो,अप्रिय लगने वाला सत्य नहीं बोलना चाहिये। प्रिय लगने वाला असत्य भी नहीं बोलना चाहिए।
काव्यशास्त्रविनोदेन कालो गच्छति धीमतां।
व्यसनेन च मूर्खाणां निद्रया कलहेन वा।।
श्लोक भावार्थ – बुद्धिमान लोग काव्य-शास्त्र का अध्ययन करने में अपना समय व्यतीत करते हैं। जबकि मूर्ख लोग निद्रा, कलह और बुरी आदतों में अपना समय बिताते हैं।
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